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ये कमरा कब खुलेगा ?

आखिरी मार्च में  
जब मेरे कमरे के सामने का गुलमोहर खिलता है 
परिंदों का एक सैलाब गुजरता है |
कभी कभी कुछ एक  परिंदे 
कमरे में आ जाते 
दीवार दर दीवार टकराते रहते ;
एक टक आईने को देखते रहते
और खुद  को समझते 
की उन्हें भी कोई समझ रहा है |
दिन ब दिन मचलते रहते 
एक आजाद रविश की तलाश में |

ये कमरा कब खुलेगा ?
कब कोई आवारा झोंका 
सलाखों को तिरछा कर जाएगा ?
खुशबू औ उम्मीद पर और कब तक जीना पड़ेगा ?

इस कसमकश में इतना तो एहसास होता है 
कोई कमरा मुझे भी बाँध रखा है |
फर्क इतना है 
मुझे मालूम नहीं 
वो कमरा कितनी दूर तक फैला है ?
उसकी सलाखों में कितना जोर है ? 
मेरी खुसबू औ उम्मीद क्या है ? 

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